महर्षि वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग 114
Maharishi Valmiki Ramayan Yuddha Kand Sarg 114
श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे युद्धकाण्डे चतुर्दशाधिकशततमः सर्गः ॥६-११४॥
तमुवाच महाप्राज्ञः सोऽभिवाद्य प्लवङ्गमः।
रामं कमलपत्राक्षं वरं सर्वधनुष्मताम्॥ १॥
यन्निमित्तोऽयमारम्भः कर्मणां यः फलोदयः।
तां देवीं शोकसंतप्तां द्रष्टुमर्हसि मैथिलीम्॥ २॥
सा हि शोकसमाविष्टा बाष्पपर्याकुलेक्षणा।
मैथिली विजयं श्रुत्वा द्रष्टुं त्वामभिकांक्षति॥ ३॥
पूर्वकात् प्रत्ययाच्चाहमुक्तो विश्वस्तया तया।
द्रष्टुमिच्छामि भर्तारमिति पर्याकुलेक्षणा॥ ४॥
एवमुक्तो हनुमता रामो धर्मभृतां वरः।
आगच्छत् सहसा ध्यानमीषद्बाष्पपरिप्लुतः॥ ५॥
स दीर्घमभिनिःश्वस्य जगतीमवलोकयन्।
उवाच मेघसंकाशं विभीषणमुपस्थितम्॥ ६॥
दिव्याङ्गरागां वैदेहीं दिव्याभरणभूषिताम्।
इह सीतां शिरःस्नातामुपस्थापय मा चिरम्॥ ७॥
एवमुक्तस्तु रामेण त्वरमाणो विभीषणः।
प्रविश्यान्तःपुरं सीतां स्त्रीभिः स्वाभिरचोदयत्॥ ८॥
ततः सीतां महाभागां दृष्ट्वोवाच विभीषणः।
मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिः श्रीमान् विनीतो राक्षसेश्वरः॥ ९॥
दिव्याङ्गरागा वैदेहि दिव्याभरणभूषिता।
यानमारोह भद्रं ते भर्ता त्वां द्रष्टुमिच्छति॥ १०॥
एवमुक्ता तु वैदेही प्रत्युवाच विभीषणम्।
अस्नात्वा द्रष्टुमिच्छामि भर्तारं राक्षसेश्वर॥ ११॥
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच विभीषणः।
यथाऽऽह रामो भर्ता ते तत् तथा कर्तुमर्हसि॥ १२॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा मैथिली पतिदेवता।
भर्तृभक्त्यावृता साध्वी तथेति प्रत्यभाषत॥ १३॥
ततः सीतां शिरःस्नातां संयुक्तां प्रतिकर्मणा।
महार्हाभरणोपेतां महार्हाम्बरधारिणीम्॥ १४॥
आरोप्य शिबिकां दीप्तां परार्घ्याम्बरसंवृताम्।
रक्षोभिर्बहुभिर्गुप्तामाजहार विभीषणः॥ १५॥
सोऽभिगम्य महात्मानं ज्ञात्वापि ध्यानमास्थितम्।
प्रणतश्च प्रहृष्टश्च प्राप्तां सीतां न्यवेदयत्॥ १६॥
तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम्।
रोषं हर्षं च दैन्यं च राघवः प्राप शत्रुहा॥ १७॥
ततो यानगतां सीतां सविमर्शं विचारयन्।
विभीषणमिदं वाक्यमहृष्टो राघवोऽब्रवीत्॥ १८॥
राक्षसाधिपते सौम्य नित्यं मद्विजये रत।
वैदेही संनिकर्षं मे क्षिप्रं समभिगच्छतु॥ १९॥
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा राघवस्य विभीषणः।
तूर्णमुत्सारणं तत्र कारयामास धर्मवित्॥ २०॥
कञ्चुकोष्णीषिणस्तत्र वेत्रझर्झरपाणयः।
उत्सारयन्तस्तान् योधान् समन्तात् परिचक्रमुः॥ २१॥
ऋक्षाणां वानराणां च राक्षसानां च सर्वशः।
वृन्दान्युत्सार्यमाणानि दूरमुत्तस्थुरन्ततः॥ २२॥
तेषामुत्सार्यमाणानां निःस्वनः सुमहानभूत्।
वायुनोद्धूयमानस्य सागरस्येव निःस्वनः॥ २३॥
उत्सार्यमाणांस्तान् दृष्ट्वा समन्ताज्जातसम्भ्रमान्।
दाक्षिण्यात्तदमर्षाच्च वारयामास राघवः॥ २४॥
संरम्भाच्चाब्रवीद् रामश्चक्षुषा प्रदहन्निव।
विभीषणं महाप्राज्ञं सोपालम्भमिदं वचः॥ २५॥
किमर्थं मामनादृत्य क्लिश्यतेऽयं त्वया जनः।
निवर्तयैनमुद्वेगं जनोऽयं स्वजनो मम॥ २६॥
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्राकारस्तिरस्क्रिया।
नेदृशा राजसत्कारा वृत्तमावरणं स्त्रियाः॥ २७॥
व्यसनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे।
न क्रतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रियाः॥ २८॥
सैषा विपद्गता चैव कृच्छ्रेण च समन्विता।
दर्शने नास्ति दोषोऽस्या मत्समीपे विशेषतः॥ २९॥
विसृज्य शिबिकां तस्मात् पद्भ्यामेवापसर्पतु।
समीपे मम वैदेहीं पश्यन्त्वेते वनौकसः॥ ३०॥
एवमुक्तस्तु रामेण सविमर्शो विभीषणः।
रामस्योपानयत् सीतां संनिकर्षं विनीतवत्॥ ३१॥
ततो लक्ष्मणसुग्रीवौ हनूमांश्च प्लवङ्गमः।
निशम्य वाक्यं रामस्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्॥ ३२॥
कलत्रनिरपेक्षैश्च इङ्गितैरस्य दारुणैः।
अप्रीतमिव सीतायां तर्कयन्ति स्म राघवम्॥ ३३॥
लज्जया त्ववलीयन्ती स्वेषु गात्रेषु मैथिली।
विभीषणेनानुगता भर्तारं साभ्यवर्तत॥ ३४॥
विस्मयाच्च प्रहर्षाच्च स्नेहाच्च पतिदेवता।
उदैक्षत मुखं भर्तुः सौम्यं सौम्यतरानना॥ ३५॥
अथ समपनुदन्मनःक्लमं सा
सुचिरमदृष्टमुदीक्ष्य वै प्रियस्य।
वदनमुदितपूर्णचन्द्रकान्तं
विमलशशाङ्कनिभानना तदाऽऽसीत्॥ ३६॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुर्दशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११४ ॥
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