भगवान श्री कृष्ण और बलराम ने चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—इन पाँचों पहलवानो को मारा। इसके बाद जो बचे वो जान बचाकर भाग गए।
भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राम्हण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है, ऐसा कहकर आशीर्वाद दे रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे। लेकिन कंस को बहुत दुःख हुआ।
कंस चिढ गया। जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी— ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो। वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो’।
जब कंस इस तरह की बकवास कर रहा था भगवान से रहा नही गया और अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से पुरे वेग से उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े।
कंस ने भगवान को देखा तो उसे भगवान के रूप में साक्षात मृत्यु दिखाई पड़ रही है। भगवान कृष्ण उसके सामने आये तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली । हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का मौका ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज की तरह वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर।
परन्तु भगवान से कौन बच सकता है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया। भगवान को आज याद आ रहा है की इस कंस ने मेरी माँ देवकी के केश पकडे थे और पिता को जेल में डाला था। इसने मेरे माता पिता, और प्रजा के साथ बहुत अन्याय किया है। इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। और फिर सम्पूर्ण त्रिलोकी का भार लेकर भगवान श्री कृष्ण उसके ऊपर कूद गए। भगवान के कूदते ही कंस की मृत्यु हो गई।
सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।
कंस हमेशा बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारुप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है। भगवान की दयालुता देखिये, भगवान ने इस कंस को भी मुक्ति प्रदान कर दी।
जब कंस मरा तो कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े । जब भगवान बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है ।
उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान के विभूतिस्वरुप ब्रम्हा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ।
महाराज! कंस और उसके भाइयों कि स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं । वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं । ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी । पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिन्ह उतर गये।
यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी । स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत् के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ये भगवान श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया।
इस तरह भगवान ने कंस का उद्धार करके मथुरा पूरी और सब प्रजा को सुख प्रदान किया।
बोलिए कृष्ण जी महाराज की जय !! बलराम भैया की जय !!
भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राम्हण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है, ऐसा कहकर आशीर्वाद दे रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे। लेकिन कंस को बहुत दुःख हुआ।
कंस चिढ गया। जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी— ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो। वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो’।
जब कंस इस तरह की बकवास कर रहा था भगवान से रहा नही गया और अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से पुरे वेग से उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े।
कंस ने भगवान को देखा तो उसे भगवान के रूप में साक्षात मृत्यु दिखाई पड़ रही है। भगवान कृष्ण उसके सामने आये तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली । हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का मौका ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज की तरह वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर।
परन्तु भगवान से कौन बच सकता है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया। भगवान को आज याद आ रहा है की इस कंस ने मेरी माँ देवकी के केश पकडे थे और पिता को जेल में डाला था। इसने मेरे माता पिता, और प्रजा के साथ बहुत अन्याय किया है। इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। और फिर सम्पूर्ण त्रिलोकी का भार लेकर भगवान श्री कृष्ण उसके ऊपर कूद गए। भगवान के कूदते ही कंस की मृत्यु हो गई।
सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी ।
कंस हमेशा बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारुप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है। भगवान की दयालुता देखिये, भगवान ने इस कंस को भी मुक्ति प्रदान कर दी।
जब कंस मरा तो कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े । जब भगवान बलरामजी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है ।
उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान के विभूतिस्वरुप ब्रम्हा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं ।
महाराज! कंस और उसके भाइयों कि स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं । वीरशय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं । ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी । पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिन्ह उतर गये।
यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी । स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत् के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ? ये भगवान श्रीकृष्ण जगत् के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया।
इस तरह भगवान ने कंस का उद्धार करके मथुरा पूरी और सब प्रजा को सुख प्रदान किया।
बोलिए कृष्ण जी महाराज की जय !! बलराम भैया की जय !!