रामायण में यह भी उल्लेख आता है के बालि प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने पूर्व तट से पश्चिम तट और उत्तर से दक्षिण तटों में जाता था।
वानर राज बालि किष्किंधा का राजा और सुग्रीव का बड़ा भाई था। बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ संपन्न हुआ था। तारा एक अप्सरा थी। बालि को तारा किस्मत से ही मिली थी।
एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। वालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः वालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये।
बालि के पिता का नाम वानरश्रेष्ठ 'ऋक्ष' था। बालि के धर्मपिता देवराज इन्द्र थे। बालि का एक पुत्र था जिसका नाम अंगद था। बालि गदा और मल्ल युद्ध में पारंगत था। उसमें उड़ने की शक्ति भी थी। धरती पर उसे सबसे शक्तिशाली माना जाता था, लेकिन उसमें साम्राज्य विस्तार की भावना नहीं थी। वह भगवान सूर्य का उपासक और धर्मपरायण था। हालांकि उसमें दूसरे कई दुर्गुण थे जिसके चलते उसको दुख झेलना पड़ा।
रामायण के अनुसार बालि अजीब सी शक्ति थी, उसे ब्रह्मा वरदान दिया था की बालि जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से बालि लगभग अजेय था।
बालि के आगे रावण की एक नहीं चली थी। रामायण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक बार जब वालि संध्यावन्दन के लिए जा रहा था तो आकाश से नारद मुनि जा रहे थे। वालि ने उनका अभिवादन किया तो नारद ने बताया कि वह लंका जा रहे हैं जहाँ लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है। चञ्चल स्वभाव के नारद – जिन्हें सर्वज्ञान है – ने वालि से चुटकी लेने की कोशिश की और कहा कि अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं। वालि ने कहा कि रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इसतेमाल उनको दबाने में किया है जो निर्बल हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दें। सर्वज्ञानी नारद ने यही बात रावण को जा कर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले। नारद ने उससे भी चुटकी लेते हुये कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा। रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर वालि के पास पहुँच गया। वालि उस समय संध्यावन्दन कर रहा था। वालि की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबरा गया और वालि के पीछे से वार करने की चेष्टा की। वालि अपनी पूजा अर्चना में तल्लीन था लेकिन फिर भी उसने उसे अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबाकर पूरे विश्व में घुमाया। उसने ऐसा इसलिए किया कि संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से उसका भय निकल जाये। इसके पश्चात् रावण ने अपनी पराजय स्वीकार की और वालि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे वालि ने स्वीकार कर लिया।
माया नामक असुर स्त्री के दो पुत्र थे — मायावी तथा दुंदुभि। दुंदुभि महिष रूपी असुर थे किष्किन्धा के द्वार पे जाकर वालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। मदमस्त वालि ने पहले तो दंभी दुंदुभि को समझाने की कोशिश की परन्तु जब वह नहीं माना तो वालि द्वंद्व के लिए राज़ी हो गया और दुंदुभि को बड़ी सरलता से हराकर उसका वध कर दिया। इसके पश्चात् वालि ने दुंदुभि के निर्जीव शरीर को उछालकर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। शरीर से टपकती रक्त की बूंदें महर्षि मतङ्ग के आश्रम में गिरीं जो कि ऋष्यमूक पर्वत में स्थित था। क्रोधित मतङ्ग ने वालि को शाप दे डाला कि यदि वालि कभी भी उनके आश्रम के एक योजन के दायरे में आया तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा।
वानर राज बालि किष्किंधा का राजा और सुग्रीव का बड़ा भाई था। बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ संपन्न हुआ था। तारा एक अप्सरा थी। बालि को तारा किस्मत से ही मिली थी।
एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। वालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः वालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये।
बालि के पिता का नाम वानरश्रेष्ठ 'ऋक्ष' था। बालि के धर्मपिता देवराज इन्द्र थे। बालि का एक पुत्र था जिसका नाम अंगद था। बालि गदा और मल्ल युद्ध में पारंगत था। उसमें उड़ने की शक्ति भी थी। धरती पर उसे सबसे शक्तिशाली माना जाता था, लेकिन उसमें साम्राज्य विस्तार की भावना नहीं थी। वह भगवान सूर्य का उपासक और धर्मपरायण था। हालांकि उसमें दूसरे कई दुर्गुण थे जिसके चलते उसको दुख झेलना पड़ा।
रामायण के अनुसार बालि अजीब सी शक्ति थी, उसे ब्रह्मा वरदान दिया था की बालि जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से बालि लगभग अजेय था।
बालि के आगे रावण की एक नहीं चली थी। रामायण में ऐसा प्रसंग आता है कि एक बार जब वालि संध्यावन्दन के लिए जा रहा था तो आकाश से नारद मुनि जा रहे थे। वालि ने उनका अभिवादन किया तो नारद ने बताया कि वह लंका जा रहे हैं जहाँ लंकापति रावण ने देवराज इन्द्र को परास्त करने के उपलक्ष में भोज का आयोजन किया है। चञ्चल स्वभाव के नारद – जिन्हें सर्वज्ञान है – ने वालि से चुटकी लेने की कोशिश की और कहा कि अब तो पूरे ब्रह्माण्ड में केवल रावण का ही आधिपत्य है और सारे प्राणी, यहाँ तक कि देवतागण भी उसे ही शीश नवाते हैं। वालि ने कहा कि रावण ने अपने वरदान और अपनी सेना का इसतेमाल उनको दबाने में किया है जो निर्बल हैं लेकिन मैं उनमें से नहीं हूँ और आप यह बात रावण को स्पष्ट कर दें। सर्वज्ञानी नारद ने यही बात रावण को जा कर बताई जिसे सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने अपनी सेना तैयार करने के आदेश दे डाले। नारद ने उससे भी चुटकी लेते हुये कहा कि एक वानर के लिए यदि आप पूरी सेना लेकर जायेंगे तो आपके सम्मान के लिए यह उचित नहीं होगा। रावण तुरन्त मान गया और अपने पुष्पक विमान में बैठकर वालि के पास पहुँच गया। वालि उस समय संध्यावन्दन कर रहा था। वालि की स्वर्णमयी कांति देखकर रावण घबरा गया और वालि के पीछे से वार करने की चेष्टा की। वालि अपनी पूजा अर्चना में तल्लीन था लेकिन फिर भी उसने उसे अपनी पूँछ से पकड़कर और उसका सिर अपने बगल में दबाकर पूरे विश्व में घुमाया। उसने ऐसा इसलिए किया कि संपूर्ण विश्व के प्राणी रावण को इस असहाय अवस्था में देखें और उनके मन से उसका भय निकल जाये। इसके पश्चात् रावण ने अपनी पराजय स्वीकार की और वालि की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया जिसे वालि ने स्वीकार कर लिया।
माया नामक असुर स्त्री के दो पुत्र थे — मायावी तथा दुंदुभि। दुंदुभि महिष रूपी असुर थे किष्किन्धा के द्वार पे जाकर वालि को द्वंद्व के लिए ललकारा। मदमस्त वालि ने पहले तो दंभी दुंदुभि को समझाने की कोशिश की परन्तु जब वह नहीं माना तो वालि द्वंद्व के लिए राज़ी हो गया और दुंदुभि को बड़ी सरलता से हराकर उसका वध कर दिया। इसके पश्चात् वालि ने दुंदुभि के निर्जीव शरीर को उछालकर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया। शरीर से टपकती रक्त की बूंदें महर्षि मतङ्ग के आश्रम में गिरीं जो कि ऋष्यमूक पर्वत में स्थित था। क्रोधित मतङ्ग ने वालि को शाप दे डाला कि यदि वालि कभी भी उनके आश्रम के एक योजन के दायरे में आया तो वह मृत्यु को प्राप्त होगा।