* बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ:-पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
English: First I reverence the feet of Brahmanas, the very gods on earth, who are able to dispel all doubts born of ignorance. Then I make loving obeisance, in a polite language, to the whole body of pious souls, the mines of all virtues.
English: First I reverence the feet of Brahmanas, the very gods on earth, who are able to dispel all doubts born of ignorance. Then I make loving obeisance, in a polite language, to the whole body of pious souls, the mines of all virtues.
* साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
* मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ:-संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संत समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
* बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी॥5॥
भावार्थ:-विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
* बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ:-(उस संत समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संत समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
* अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ:-वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥
दोहा :
Doha:
Doha:
* सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ:-जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
चौपाई :
Chaupai:
Chaupai:
* मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ:-इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥
* बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ:-वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तांत) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
* मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ:-उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
* बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
* सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
* बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥
दोहा :
Doha:
Doha:
* बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ॥3 (क)॥
भावार्थ:-मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अंजलि में रखे हुए सुंदर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगंधित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥3 (क)॥
* संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3 (ख)
भावार्थ:-संत सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥ 3 (ख)॥
English: Realizing thus the noble disposition and loving nature of saints, who are innocent at heart and catholic in spirit, I make this humble submission to them. Listening to my childlike prayer and taking compassion on me, O noble souls, bless me with devotion to the feet of Sri Rama.
English: Realizing thus the noble disposition and loving nature of saints, who are innocent at heart and catholic in spirit, I make this humble submission to them. Listening to my childlike prayer and taking compassion on me, O noble souls, bless me with devotion to the feet of Sri Rama.